
बिजयनगर। मां घर का गौरव तो पिता घर का वजूद, दो वक्त खाना बनाती है मां तो जीवन भर भोजन की व्यवस्था पिता बिना किसी ना-नुकर के कर देता है। अवतार हो या पैगम्बर, सिकंदर हो या सम्राट, महावीर हो या महादेव, सब मां के दूध के कर्जदार होते हैं। कुदरत हर घर जाकर प्रेम नहीं दे सकता इसीलिए उसने मां शब्द को जन्म दिया।
यह बात आचार्य श्रीमहाश्रमणजी के आज्ञानुवर्ती शासन श्री मुनि श्री सुरेशकुमार जी ‘हरनांवा’ ने संभवनाथ जैन मंदिर में ‘माता पिता के चरणों में है जन्नत’ विषय पर धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि मां जैसी कलाकार दुनिया में कोई नहीं, जो खुद बच्चे को जन्म देकर पिता का नाम देती है। मातृभूमि पर शहीद होने वाले लाखों मिलेंगे मगर माता पिता पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले तो श्रवण कुमार मठी भर भी कहां होते हैं।
मां ममता का मंगल कलश और त्याग का यश है। उन्होंने कहा कि कितना अजीब है नारी ने मर्दों को जन्म दिया, मर्दों ने उसे बाजार, वृद्धाश्रम और तन्हाई की मौत दी। मां-बाप एक झोपड़ी में दस बच्चों को बड़े आराम से पाल लेते हैं। मगर अफसोस, दस बच्चों से आलिशान बंगलों में मां-बाप नहीं पलते। मुनि श्री सम्बोध कुमार ने कहा कि मां ऐसी रुत है जिसमे कभी पतझड़ नहीं आता, सत्तर साल की उम्र में कैंसर से पीडि़त मरीज माँ की आवाज से सुकून पाने की कोशिश करता है।
तराजू के एक पलड़े में दुनिया की दौलत हो और दूसरे पलड़े पर माता पिता शब्द हो तो भी भारी माता-पिता का ही पलड़ा होगा। यशोदा तो हर युग में होती है, मगर औलाद कृष्ण नहीं बन पाते। कलयुग की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि घर में बूढ़े बाप को खिचड़ी नहीं मिलती और घर-घर जाकर भिखारियों को हलवा खिलाया जा रहा है। मां-बाप के उपकार इतने हैं कि अपनी चमड़ी की चादर बनाकर भी ओढ़ा दे तो भी कभी चुकाया नहीं जा सकता। जिस घर आंगन में मां-बाप हंसते हैं प्रभु उस घर में बसते हैं।