निंदक नीयरे राखिये…

विश्वास की यही पूंजी हमें सच को और मुखर होकर कहने-लिखने की शक्ति देता है। सच जानने-समझने-देखने के लिए पगफेरे लगाकर गलियों-नालियों में झांकना पड़ता है साहेब।
– जय एस. चौहान –
खारीतट संदेश के पिछले अंक में एक छोटी सी भूल (सोमवार की जगह मंगलवार छप जाने) पर तीखी आलोचना हुई। पाठकों की इस जागरूकता पर हमें गर्व है। …और विनम्रता के साथ हम अपनी भूल को स्वीकार भी करते हैं। विनम्र निवेदन यह भी कि आलोचना से और सुधार की गुंजाइश होती है। हम तो इतना जानते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास कह गए हैं, निंदक नीयरे राखिए…। निसंदेह खारीतट संदेश में विशुद्ध पत्रकारिता है। सुधि पाठकों से हमें आत्मबल मिलता है, … और प्रेरित भी करता है। इसीलिए शब्दों में तल्खी तो है, पर हम बे-वजह खिल्ली उड़ाने से परहेज करते हैं। आलोचना और खिल्ली उड़ाने में बुनियादी फर्क होता है। दीवान-ए-खास के मसखरे इस बुनियादी फर्क को नहीं समझ पाते, समझेंगे भी नहीं।
जमाने के साथ सूचना तंत्र बहुत तेजी से बदल रहा है। पहले दीवान-ए-खास में नवरत्न हुआ करते थे। अब नवरत्नों का मिजाज बदल गया है। इससे भी इतर जब राज (अ)घोषित तौर पर पोपा बाई का हो तो ऐसे लोग दीवाना हो जाता है। वर्ना सुना तो यही था कि दीवानों का ठौर दीवान-ए-खास में नहीं, माशूक की गली में होता है। ऐसे लोगों ने दीवाने का तमगा लगाकर आशिकों की मर्यादा को चूना लगाया है।
खैर, छोडि़ए इन बातों को। सच को सच की तरह ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यही नैतिकता है और उसूल भी। नैतिकता और उसूल के बदौलत ही खारीतट संदेश ने पाठकों का विश्वास हासिल किया है।
पाठकों का यही विश्वास ही हमारी जमापूंजी है और बिनाशर्त इसे कायम रखना हमारी जिम्मेदारी है। विश्वास की यही पूंजी हमें सच को और मुखर होकर कहने-लिखने की शक्ति देता है। सच जानने-समझने-देखने के लिए पगफेरे लगाकर गलियों-नालियों में झांकना पड़ता है साहेब। सच ख्वाब में नहीं आता साहेब। वर्ना बिना ईट-गाड़े के हम भी कब का फ्लाईओवर और स्मार्ट सिटी बनवा देते।

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