
बांदनवाड़ा। ( राजेश मेहरा) दीपोत्सव का पर्व नजदीक आने के साथ ही इन दिनों क्षेत्र के कुम्भकारों ने अपनी चाक की चाल तेज करते हुए मिट्टी के दिए बनाने शुरू कर दिए हैं। दीपोत्सव पर इस परम्परा की थाती को वे बखूबी निभा रहे हैं लेकिन वाजिब दाम उन्हें नहीं मिलता। कुम्भकारों को महंगाई के चलते लागत भी नहीं मिल पाती है। ग्रामीण परिवेश में मिट्टी के दीपकों की मांग ज्यादा होने पर दिन रात दीपकों का निर्माण किया जा रहा है।
ग्रामीण क्षेत्र के लोग भी आजकल शहरी चपेट में आने के कारण चीनी उत्पाद की रंग-बिरंगी लडिय़ां व रोशनी का उपयोग करते हैं। परंतु शगुन के तौर पर फिर भी घरों में मिट्टी के बने दीये जलाए जाते हैं। पुराने समय में रोशनी का माध्यम सिर्फ दीपक ही थे, जो धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार की रोशनी में तब्दील होते गए। इसके चलते कई कुम्हार जाति के लोगों ने इस धंधे की ओर से मुंह फेरना शुरू कर दिया। पहले घरों को दीपकों की कतार बनाकर सजाया जाता था परंतु वर्तमान में इलेक्ट्रिक व रंग-बिरंगी रोशनियों से घरों को सजाया जाता है।
इस प्रकार लोगों ने पारंपरिक तौर-तरीके छोड़कर चाईनीज लडिय़ां व रोशनियों की तरफ रुख कर लिया, जिसका सीधा प्रभाव कुम्भकारों के पुश्तैनी धंधे पर पड़ा। उनके पुश्तैनी मिट्टी के काम में उतनी तेजी नहीं रही जितनी पहले हुआ करती थी। तेजी-मंदी के दौर के चलते इन लोगों ने अन्य धंधों की ओर रुख कर लिया। स्थानीय लोगों का कहना है कि आज से 5-6 वर्ष भगवान सत्यनारायण के मेले में एक माह पूर्व ही विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बने घड़े, दही जमाने के कुण्डे, विभिन्न प्रकार की सुराहियां आदि की दुकानें लग जाती थी। जिन्हें खरीदने के लिए दूर-दूर से लोग आया करते थे। परंतु विगत 3-4 वर्षों में स्थिति यह है कि मिट्टी के बर्तनों की यहां नाममात्र की दुकानें लगती हैं। ऐसी स्थिति के कारण कुम्हार समाज के लोगों ने दूसरे धंधे अपनाने शुरू कर दिए हैं।