
जिस समाज में किसी पर्व त्यौहार पर महिलाएं, बेटियां, बच्चे व बुजुर्ग ‘घोर’ आतिशबाजी से सहम जाए उसे त्यौहार कहना भी त्यौहार का अपमान है। त्यौहार के नाम पर किसी पर जलते हुए पटाखे फेंकना किसी धर्म व संस्कृति का हिस्सा नहीं हो सकता।
दीपावली अथवा हर्ष को जताने के लिए किसी भी धर्म-ग्रंथों में पटाखे का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। इसके बावजूद दीपावली पर आतिशबाजी को अनिवार्य साधन मान लिया गया है। यही अनिवार्य साधन पर्यावरण को प्रदूषित तो करता ही है, कई बार छोटे जीव-जंतु भी मारे जाते हैं। कई लोग पटाखों से घायल भी हो जाते हैं। बिजयनगर में दीपावली के अगले दिन यानी गोवर्धन पूजा की शाम को होने वाली आतिशबाजी को किसी भी नजरिये से जायज नहीं ठहराया जा सकता।
क्या कोई सभ्य समाज एक-दूसरे पर जलते हुए पटाखे फेंकने की इजाजत देगा। कतई नहीं। जिस समाज में किसी पर्व त्यौहार पर महिलाएं, बेटिया, बच्चे व बुजुर्ग ‘घोर’ आतिशबाजी से सहम जाए उसे त्यौहार कहना भी त्यौहार का अपमान है। त्यौहार के नाम पर किसी पर जलते हुए पटाखे फेंकना किसी धर्म व संस्कृति का हिस्सा नहीं हो सकता। मन, वचन और काया पर जलते हुए पटाखों से आघात करना भी कोई उल्लास है। यदि यही उल्लास है तो समाज को चाहिए कि वह उल्लास की नई परिभाषा की तलाश करे। निसंदेह यह कुप्रथा निंदनीय है। इस कुप्रथा पर अब सामाजिक सरोकार से जुड़े लोगों को सख्ती से रोक लगाने के लिए पहल करनी चाहिए। यह कुप्रथा न सिर्फ गलत है बल्कि किसी के मौलिक अधिकारों का हनन भी है। इस कुप्रथा पर सख्ती से रोक लगाना ही एक मात्र विकल्प है।
भारतीय संस्कृति में महिलाओं व बेटियों की सहभागिता के बगैर किसी भी पर्व-त्यौहार का कोई अस्तित्व नहीं है। हमारा समाज भले ही पुरुष प्रधान रहा हो, लेकिन धर्म और संस्कृति की बागडोर हमेशा घर की महिलाओं के जिम्मे ही रही है। सही मायनों में घर की महिलाएं ही धर्म व संस्कृति की वाहक रही हैं। गोवर्धन पूजा के दिन महिलाएं व बेटियां इस कुप्रथा के कारण सहमी-सहमी रहती हैं। इस कुप्रथा पर रोक जरूरी है।
अब जबकि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने पटाखे जलाने की महज दो घंटे की इजाजत दी है। हमें इस पुनीत कार्य में अपनी सहभागिता निभानी चाहिए।
– जय एस. चौहान –
दीपावली की शुभकामनाएं