
बिजयनगर। घर में पर्व, त्यौहार और उत्सव के समय बहु-बेटियों के हाथों से भूमि, दीवार, तुलसी स्थान का अलंकरण एक पारम्परिक व प्राचीन कला के साथ-साथ हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। मांडण यानि ‘सज्जा’ और इसी से बना है मांडणा। कच्चे मकानों को गोबर से लीपकर दीवारों को गेरू और चूने से चित्रांकन से सज्जित करना मांडना कला है। मांडणा में त्यौहार के अनुरूप चित्रांकन करते हुए पर्यावरण और ऋतु परिवर्तन का संकेत भी होता है। जब फसल कट कर घर आती है तो सुख-समृद्धि के साथ-साथ उल्लास की अभिव्यक्ति भी इस कला द्वारा की जाती है। दीया, छाबड़ी, जहां समृद्धि का प्रतीक है तो स्वास्तिक (सतिया) चहुमुखी विकास का द्योतक है।
‘पगल्या’ परिवार में वृद्धि के साथ-साथ लक्ष्मी जी के आगमन का संकेत है। शंख, विनायक, माताजी, सूरज, चांद का चित्रण आस्था का प्रतीक बन जाता है। राजस्थान ही नहीं अन्य प्रदेशों में भी यह कला अल्पना, चौक पूरना रंगोली आदि नामों से प्रचलित है। आज के दौर में पक्के मकानों और टाइल्स वाले फर्श पर मांडणा का रूप बदल रहा है। कोई प्लास्टिक पेपर की आकृति लगा रहा है तो कहीं पेन्ट से मांडणे बनाए जा रहे हैं। जो भी हो कार्तिक माह में श्री हरि विष्णु और महालक्ष्मी के प्रति आस्था के प्रवाह की झलक मांडणों में हर जगह दिखाई देती है। स्वरूप भले ही बदले मगर अपने उल्लास और आस्था को प्रदर्शित करने का सरल और कलात्मक माध्यम समाज के हर वर्ग से जुड़ा हुआ है।
-डॉ. रूपा पारीक, प्रधानाचार्या, राबाउमावि, गुलाबपुरा