सूर्योपासना का पर्व है छठ पूजा

  • Devendra
  • 11/11/2018
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नई दिल्ली। नवरात्रि और दूर्गा पूजा की तरह छठ भी हिंदूओं के प्रमुख त्यौहारों में से एक है। मुख्यत: यह पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला पर्व है। यहां इस पर्व को लेकर एक अलग ही उत्साह देखने को मिलता है, लेकिन चूंकि इस हिस्से के लोग अब देश-विदेश में फैले हुए हैं इसलिए अब यह पर्व कई जगह उसी आस्था और उत्साह से मनाया जाता है। छठ पूजा मुख्य रूप से सूर्यदेव की उपासना का पर्व है। इस दौरान डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार छठ सूर्य देव की बहन हैं और सूर्योपासना करने से छठ माता प्रसन्ना होकर घर परिवार में सुख-शांति व धन-धान्य प्रदान करती हैं।

वैसे तो सूर्य की आराधना का यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है, चैत्र शुक्ल की षष्ठी व कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को। चैत्र शुक्ल की षष्ठी को काफी कम लोग यह पर्व मनाते हैं, लेकिन कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने वाला छठ पर्व मुख्य माना जाता है। चार दिनों तक चलने वाले कार्तिक छठ पूजा का विशेष महत्व है। कार्तिक अमावस्या के बाद छठ पर्व मनाया जाता है। मुख्यत: यह भाईदूज के तीसरे दिन से शुरू होता है। शुक्ल की षष्ठी को यह पर्व मनाए जाने के कारण इसका नाम छठ पूजा पड़ा। इस दौरान व्रत रखने वाले लोग 36 घंटों तक उपवास रखते हैं।

छठ पूजा मुख्य रूप से सूर्य देव की उपासना कर उनकी कृपा पाने के लिए की जाती है। भगवान भास्कर की कृपा से सेहत अच्छी रहती है और घर में धन धान्य की प्राप्ति होती है। संतान प्राप्ति के लिए भी छठ पूजन का विशेष महत्व है। छठ माता को सूर्य देव की बहन बताया जाता है, लेकिन छठ व्रत कथा के अनुसार छठ माता भगवान की पुत्री देवसेना बताई गई हैं। अपने परिचय में वे कहती हैं कि वह प्रकृति की मूल प्रवृत्ति के छठवें अंश से उत्पन्ना हुई हैं यही कारण है कि उन्हें षष्ठी कहा जाता है।

संतान प्राप्ति की कामना करने वाले विधिवत पूजा करें, तो उनकी मनोकामना पूरी होती है। यह पूजा कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को करने का विधान बताया गया है। पौराणिक ग्रंथों में इसे रामायण काल में भगवान श्री राम के अयोध्या वापसी के बाद माता सीता के साथ मिलकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्योपासना करने से भी जोड़ा जाता है। छठ पूजा चार दिनों तक चलती है और इसे काफी कठिन और विधि-विधान वाला पर्व माना जाता है। इसके लिए पूजा से पहले काफी साफ-सफाई की जाती है। घर के आस-पास भी कहीं गंदगी नहीं रहने दी जाती।

छठ पूजा व्रत की शुरुआत नहाय-खाय नामक रस्म से होती है। व्रत के पहले दिन इसमें घर की साफ-सफाई करके उसे पवित्र बनाया जाता है। इस दिन व्रत रखने वाले शुद्ध शाकाहारी भोजन करते हैं। इस दिन व्रतधारी कद्दू की सब्जी, दाल-चावल खाते हैं।छठ पूजा व्रत का दूसरा दिन कार्तिक मास की शुक्ल पंचमी को होता है। इसमें पूरे दिन उपवास रखा जाता है। शाम को खाना खाया जाता है। इसे खरना रस्म कहते हैं। इसके तहत अपने पड़ोसियों एवं जान-पहचान के लोगों को प्रसाद ग्रहण करने के लिए बुलाया जाता है। प्रसाद में गन्नो के रस एवं दूध से बनी चावल की खीर, चावल का पीठा और घी लगाई हुइ रोटियां शामिल होती हैं। इस दौरान किसी भी भोजन में नमक एवं चीनी का बिल्कुल भी उपयोग नहीं किया जाता है।

छठ पूजा व्रत का तीसरा दिन कार्तिक मास की षष्ठी को पड़ता है। इसमें शाम के समय व्रतधारी किसी नदी या तालाब में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। सूर्य देव को दूध और जल से अर्घ्य दिया जाता है। एक बांस की टोकरी में मैदे से बना ठेकुआ, चावल के लड्डू, गन्नाा, मूली व अन्य सब्जियों और फलों को रखा जाता है, इसे सूप कहते हैं। इस प्रसाद को अर्घ्य के बाद सूर्य देव और छठी माईं को अर्पण किया जाता है। छठ पूजा व्रत का अंतिम दिन कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की सप्तमी को पड़ता है। इसमें व्रत रखने वाले लोग सूर्योदय से पहले उसी नदी या तालाब में जाकर सूर्य देव को अर्घ्य देते हैं जहां उन्होंने बीती शाम को दिया था।

पूर्व संध्या की तरह प्रात:काल भी वही रस्में की जाती है। इसके बाद व्रतधारक घर के पास पीपल के पेड़ की पूजा करते हैं। पीपल के पेड़ को ब्रह्म बाबा भी कहते हैं। पूजा के बाद व्रतधारक कच्चे दूध का शरबत एवं थोड़ा प्रसाद ग्रहण कर अपना व्रत पूर्ण करते हैं, इस प्रक्रिया को पारण कहते हैं। छठ पूजा का व्रत बहुत ही कठिन होता है। इसमें सभी व्रतधारकों को सुख-सुविधाओं को त्यागना होता है। इसके तहत व्रत रखने वाले लोगों को जमीन पर एक कम्बल या चादर बिछाकर सोना होता है। इसमें किसी तरह की सिलाई नहीं होनी चाहिए। ये व्रत ज्यादातर महिलाएं करती है। वर्तमान में अब कुछ पुरुष भी यह व्रत करने लगे हैं।

लोक कथाओं के अनुसार छठ पूजा का उल्लेख राम के काल में भी दिखाई देता है। एक मान्यता के अनुसार लंका में विजय प्राप्त करने के बाद श्री राम और माता सीता ने छठ पूजा की थी। उन्होंने कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को व्रत रखा था। इसमें उन्होंने सूर्य देव की पूजा की थी। दूसरी पौराणिक कथाओं के अनुसार सबसे पहले छठ पूजा सूर्य पुत्र कर्ण ने की थी। उन्हें सूर्य देव के प्रति बहुत आस्था थी। वे हमेशा कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य देव की कृपा के कारण ही उन्हें जगत में बहुत सम्मान मिला। एक अन्य कथा के अनुसार महाभारत काल में द्रौपदी ने भी छठ पूजा की थी। उन्होंने अपने परिवार वालों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए यह व्रत रखा था। वह उनकी लंबी उम्र के लिए नियमित तौर पर सूर्य देव की पूजा करती थीं।

बताया जाता है कि एक समय प्रियंवद नाम का एक राजा था। उसके कोई संतान नही थी। इसके लिए महर्षि कश्यप ने एक यज्ञ किया और पूजन के लिए बनाई गई खीर राजा की पत्नी मालिनी को दी। इससे उसे पुत्र प्राप्त हुआ, लेकिन वह मृत था। इस वियोग में राजा अपने प्राण त्यागने जा रहा था, तभी ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई। उसने बताया कि वह सृष्टि के छठे अंश से उत्पन्ना हुई है, इसलिए उसे षष्ठी कहा गया। आप मेरी पूजा करें और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करें। राजा ने पुत्र की पुन: प्राप्ति के लिए षष्ठी मां का व्रत किया, जिससे उन्हें कुछ समय बाद संतान प्राप्ति हुई।

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